जोकर.. (next post today)

(यह रचना शायद कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह द्वारा की गई है!  मुझे अच्छी लगी, सोचा आप भी पढ़ें.. आभार)

स्टेज पर पहुँचते ही 
दर्शकों के बीच जोर का एक ठहाका लगा !
मुझे कुछ घबडाहट हुई 
नहीं चाहता था 
की मुझे ठीक से देखे बिना ही  
इस तरह की कोई प्रतिक्रिया हो !
कोई बात होती 
जो वे पहले मुझे ध्यान से देखते समझते
और फिर हँसते, रोते या चप्पल उछलते !
मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ !

मेरी नाक जोड़-जाड कर 
बेहिसाब बाहर लम्बी और ऊँची कर दी गई थी !
यही हाल कानों का भी था !
मगर आँखें बिलकुल कौव्वे की-सी--
इतनी छोटी की दूर से देखी भी नहीं जा सकती थी !
मुंह केवल सांकेतिक था !
और जबकि पैरों को ठोक-ठोक कर ताड़ बना दिया गया था 
हाथ जड़ से गायब ही कर दिए गए थे !
कीलें इस तरह ठुकी थीं 
की या तो मैं खड़ा रह सकता था 
या यंत्रवत चल सकता था-यही बस दो-चार डग !
उससे आगे स्टेज भी ख़त्म हो जाता था !
यानी जहाँ मुझे पूरी तैयारी और कलात्मक साज-सज्जा से 
खड़ा किया गया था 
वहां मैं बिलकुल नहीं था !

हाल बड़ा मुश्किल था !
और हजारों मुश्किलों की मुश्किल यह थी 
कि मुझे इसी रूप में अभी रहना था,
और प्रदर्शनों का सिलसिला रलदी ख़त्म होने वाला नहीं था !
मेरा खेल कई-कई स्टेजों में होता था !
स्टेज-परिवर्तन की सुचना रौशनी गूल कर दी जाती थी,
और जब रौशनी गुल कर दी जाती थी,
दर्शक जोर-जोर से सीटियाँ मरने लगते थे !
तनाव कम करने के शायद और कोई साधन न था !

दर्शकों में ज्यादातर ऐसे लोग थे 
जो सिर्फ सुन रहे थे या सिर्फ देख रहे थे--
तमाशा 
या तमाशे का तमाशा !
और बैठे-बैठे उछल रहे थे,
या औरों की देखा-देखी तालियाँ पीट रहे थे--
हंस रहे थे !
उनमें ऐसे कम लोग थे 
जिनका ध्यान वास्तु-स्थिति पर भी जाता था--
और वे मेरी ही तरह 
सांकेतिक मुंह की जगह सचमुच का--
हाड-मांश और अनायुओं का मुंह 
और हाथ 
पाने की छट-पटाहट  भरी कोशिश में थे !

मैं  चाहता था--चाहता हूँ 
कि मेरे मुंह हों, हाथ हों 
और पैरों की यांत्रिक गति की जगह सहज गति हो !
और जब स्टेज पर खड़ा होना पड़े,
पूरी दृढ़ता से खड़ा हो सकूं--
दोनों हाथ आसमान में उठाकर 
दिशा-भेदी स्वरों में कह सकूं--
यह रहा मैं... या अपना मुल्क !
यह अपनी हकीकत !
और हकीकत की हकीकत की हकीकत !
किन्तु मैंने पाया--
मेरे सर्कस के मालिक हाथी और बाघ तो पाल लेते हैं,
मगर आँख, मुंह और हाथ से बेहद खौफ खाते हैं 
और ठीक से जोकर होना भी अपने यहाँ आज आसान नहीं है !...

15 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut hi gahri abhivyakti... is rachnakaar ko badhaai

Dr Varsha Singh ने कहा…

कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह जी को पढ़ने को अपना अलग ही आनन्द है....
पढ़वाने के लिए आपका आभार...

लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा…

हार्दिक आभार ....

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति.... सुंदर रचना पढवाई आपका आभार

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह बेहतरीन !!!!
पढ़वाने के लिए आपका आभार...

Unknown ने कहा…

@.Rashmi Ji..
@.Dr.Varsha Singh Ji..
@.Laxmi Narayan Lahare Ji..
@.Dr. Monika Sharma Ji..
@.Sanjay Bhaskar Ji..

Bahut-bahut dhanyawaad aapka..

Kunwar Kusumesh ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति.

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत गहराई से लिखी गई रचना पढ़वाई आपने...रचनाकार को बधाई...

Dr Varsha Singh ने कहा…

बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी प्रस्तुति.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 11 - 08 - 2011 को यहाँ भी है

नयी पुरानी हल चल में आज- समंदर इतना खारा क्यों है -

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

सुन्दर रचना ....आभार

Unknown ने कहा…

My Ideal,
Rashmi Prabha Ji...

The Gazal Queen
Dr. Varsha Singh Ji...

New Frioend,
Lahare Ji...

New Guest,
Dr. Monica Sharma Ji..

Closest,
Sanjay Bhaskar Ji...

Honourable,
Kushumesh Ji...

Honourable Veena Ji...

Again Varsha Singh Ji... Many many thanks to all of you to support and encourasing me..

Unknown ने कहा…

Sangeeta Swaroop Ji,
Many-many thanks to pick me for NAYI_PURANI HULCHUL.. Thanx..

Unknown ने कहा…

Surendra Ji,
aapka bahut-bahut dhanyawaad.. aap bhi mere kai chaheton mein se ek hain.. dhanyawaad..

संजय भास्‍कर ने कहा…

आज दुबारा पढी कविता, और फिर जी चाहा कि कमेंट लिखूं। लेकिन क्‍या लिखूं, यह समझ नहीं आ रहा। बस इतना कहूंगा कि मन को छू गये भाव।