हालात-ए-बयाँ

कल जो उन्होंने
हालात-ए-बयान की है -
यकीनन उनमें कहीं थोड़ी
मेरे दर्द की दवा भी है ..!

मगर ऐसा भी नहीं
सौ फीसदी,
हर्फों के मार्फ़त भी
उन्होंने पूरी वफ़ा की है ...!

एक बार फिर दरअसल
उन्होंने मेरी चाहतों को
हवा दी है..

मगर, तमाम एहसासातों के बाद भी
लगता है -
उन्होंने दिल में अभी भी
मेरे हिस्से की
थोड़ी सी मह्सुसियत
छुपा भी ली है..!

अगर - मगर

अच्छा है अगर
जोशों भरी जवानी हो..

मगर दोस्तों,
लूटने ओर लूट जाने के 
इस दौर में,
थोड़ा रूको़़़ ...सांस लो...!
इंसानियत को मरने न दो
ये जिंदा रहे - है जरूरी
आँखों में पानी हो़....।



मुहब्बत नहीं जागीर किसी की
लटतॆ चलो, लूट जाते चलो
बस मुहब्बत करो - जरूरी नहीं
कि तेरी कोई कहानी हो...!

खून खौले तो बस
नेकी कर पाने के लिए...
खून बहे अगर तो बस,
जिंदगी बचाने के लिए
आबरू बचाने के लिए..
खून बची खूऩ रहे,
न पानी बने - ऐसी
खून में रवानी हो....।

अपनी चाहो - कुछ बूरा नहीं,
पर जितने की होड़ में
ना दिल टूटे किसी का...
ना हो घायल कोई तेरी वजह
ख्याल रहे - ना किसी के साथ
बेइमानी हो.....!

अब आये हो ...!


अब आये हो ..!..
काका और फूफा भी ..
क्यूँ आये हो..?
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साभार : गूगल चित्र
अच्छा.. अब समझा
तुम्हें तो आना ही था
मूक मान्यता जो है हमारे मजहब में
जीते जी ना मिलो
मय्यत पे जरूर शामिल होना...
______________
खैर, आये हो तो ठीक है
थोडा तुम भी रो लो
मेरे तो आंसू सुख गए रोते-रोते
कल ही दम तोडा है मां ने
देखो न कितने कम आंसू
बचे थे मेरी आँखों में
कि आज रस्म निभाने को भी
आंसूं नहीं बचे
तुम्हारे तो बहुत आंसू
आ सकते हैं आँखों से - रो..लो..
______________
अरे..हाँ.. भूल गया..
कल ही तो जिक्र किया था मां ने तुम्हारा
बोल रही थी - बड़ी मुश्किलों में रहता है वो
देखने की भी फुर्सत
नहीं मिलती उसे..
______________
उसे क्या मालूम था -
आज के दिन के लिए
तूने वर्षों से छुट्टी ले रखी थी..
सिर्फ माँ के तड़प-तड़प कर
जीवित रहने तक ही
फुर्सत को तुम्हारे लिए
फुर्सत ना थी..

तमन्ना एक अधूरी सही..!



मुझे पहचान न सकें वो.. 
आम ज़माने सा - समझ लिया मुझे भी 
खैर, देर ही सही,
शुक्र है - बख्श दिया.. 
उनकी समझ अधूरी सही..! 

तोड़ दिया मेरी गफलत को.. 
टूटा आईना दिखाया हमें.. 
टुकड़ों में ही सही, 
हमने पहचान लिया खुद को.. 

होना था कभी - अभी से वो दूरी सही..!

जिंदगी की 
सबसे बड़ी भूल हैं वो.. 
उम्मीद की हमने
फिर भी अपने उसूलों के खिलाफ..
माना ये मजबूरी सही.!

खुद को संभाला करेंगे..
फकीरों की तरह उनसे,
अब न कुछ भी माँगा करेंगे..
है मुश्किल मगर, कर लेंगे सब्र
अपनी तमन्नाओं से..
मेरी अधूरी जिंदगी की
तमन्ना एक अधूरी सही..!

“निकलो ना तुम बेनकाब”

ये ग़ज़ल पंकज उधास जी के मशहूर गजलों में से एक है। जैसा गाने से स्पष्ट कि – एक नसीहत है यह ग़ज़ल।  ये तो बात हुई ग़ज़ल की, गाने वाले ने और ग़ज़ल लिखने वालों ने भी यह न सोचा होगा कि उनकी लिखी बहुत जल्दी पुरानी हो जाएगी।

जबकि कुछ वर्षों बाद ही आलम ये है कि पूरे नकाब में भी महिलाएं अब सुरक्षित महसूस नहीं कर रहीं।  क्या सड़क, क्या हॉस्टल, क्या किराये का कमरा, क्या डिस्को बार, क्या सार्वजनिक पार्क, क्या बस, क्या चलती कार, क्या चलती ट्रेन, क्या खुले मैदान, क्या फसलों से भरे खेत, क्या स्कूल, क्या कॉलेज, क्या पवित्र स्थल, क्या गुरु आश्रम, क्या सेवा आश्रम, क्या अन्य सार्वजनिक स्थल,  और भी न जाने कितने जाने-अनजाने स्थल और अब तो घर भी – कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हैं महिलाएं ।

कभी बोझ मानी जाती  थीं लडकियां समाज पर दहेज़ और वंश के खोखले सवाल को लेकर। अब जागरूकता बहुत हद तक आई दिखती है तो उनकी सुरक्षा को लेकर संशय बढ़ी है । और सिर्फ महिलाओं की क्या कहें अब तो लगता नहीं कि कोई भी कहीं भी सुरक्षित है।

दिन हो या रात हो, सुनसान हो या भीड़ हो।  आम आदमी कहीं भी, कभी भी लूटा जा सकता है।  फिर वही बात-आम की क्या कहें, खासों को भी लूटते देर नहीं लगती। आज देश में अन्य समस्याओं के अलावा सुरक्षा बहुत बड़ी समस्या है। और जब सुरक्षा की बात आती है तो बच्चे और महिला इसे पाने की प्राथमिकता रखते हैं। सुरक्षा से हमारा तात्पर्य सभी तरह की सुरक्षाओं से है।

विडम्बना है कि दुष्कर्मियों को सजा भी शत-प्रतिशत नसीब नहीं होता।  इसिलए भी ग्राफ दुष्कर्म का कम होने के आसार नजर आते नहीं । कुछ गुनाहगारों को सजा मिल भी गई तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता दुष्कर्मियों के मनोबल पर। जबकि चुन-चुन कर हर एक दुष्कर्मियों को सजा मिलनी चाहिए।

हजारों कानून लागू कर देने भर से ही किसी तरह के अपराध पर लगाम लगाना मुश्किल है । सिर्फ एक कानून कि दोषी साबित होने पर जरूर से जरूर सजा हो – इस बात के लिए प्रशासन प्रतिबद्ध हो, ये एक कानून बने। अगर दोषी सजा नहीं पायें और निर्दोष सजा पा जाएँ  तो इस मामले में प्रशासन को दोषी माना जाये और नियमानुसार उचित कार्रवाई हो ।

सच पूछिये तो हमारा मानना है कि बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराध सिर्फ समय के प्रकोप नहीं है, यह हमारे नैतिक पतन का क्रमिक ह्रास भी दर्शाता है और इन जैसे अपराधों का आरोह भी । नैतिक पतन हुआ है हमारा। हमारा नैतिक बोध मरणासन्न अवस्था में है। नैतिकता के पतन के कारणों पर मैं नहीं जाना चाहता।  बहुत सारे कारण हो सकते हैं अनैतिकता पनपने के पीछे ।

हमें ख्याल आता है अपने बचपन के दिन जब हमारे पाठ्य-पुस्तकों में नैतिक शिक्षा एक जरूरी शिक्षा हुआ करती थी। किसी का मजाक नहीं उड़ना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, अपने दिल से पूछो पराये दिल का हाल, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ ना करें जो खुद को अच्छी ना लगती हो, जरूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए आदि-आदि।

शत-प्रतिशत कह सकता हूँ कि उन नैतिक शिक्षाओं के प्रभाव और अभिभावकों के दिए गए नसीहत ही आज हमें कुछ भी गलत करने से रोकती है। जरूरत है कि एकदम आज से ही हमारे पाठ्यपुस्तकों में नैतिक शिखा अनिवार्य विषय हों। तीसरी-चौथी कक्षा से इंटरमीडिएट तक के छात्र-छात्रों के लिए नैतिक शिक्षा का अध्ययन अनिवार्य हों। निश्चित रूपेण अगली पीढ़ी ज्ञानवान होने के अलावे बुद्धिमान, चरित्रवान और नीतिवान बन सकेंगे।

अभी समय थमा नहीं, जिंदगी अभी ख़त्म हुई नहीं। अभी और जीना हैं हमें, समाज को, राष्ट्र को मगर कैसे ? – यूँ ही आसपास में घटित हो रही कुकृत्यों से जूझते हुए।  नहीं कदापि नहीं – बदलना होगा हमें, बदलना होगा समाज को, बदलनी होगा सोच को। एक जूट होकर  नयी सशक्त व्यवस्था के प्रयास करने होंगे …!

कब रोका उन्हें ....!

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कब रोका उन्हें औरों के घर जाने से
कब कहा मुझे अपना बना ही लो
रोका कब उन्हें औरों के
दिल - जेहन में उतर जाने से
मगर ये शौक भी क्या
कि जगहंसाई की जाय
वफ़ा-वफ़ा के दम भरे और बेवफाई की जाय

तलब नहीं, दरकार नहीं अब उन्हें वफ़ा की
सच है दर असल, वो मुझ परायों से
वफ़ा करेंगे क्या
जिन्होंने अपनों से दगा की

अरसों से हम तड़प रहे हैं
जिस एक ख़ुशी की तलाश में
वो ख़ुशी नहीं अब शुकून देने वाली
हलक ने इनकार किया है ये
जूठा पानी नहीं अब क़ुबूल लेने वाली
अब है बेहतर कि मर जाएँ हम
तड़प-तड़प यूं ही दो बूँद की प्यास में
जो ख़ुशी अब ख़ुशी सी ना लगे लगे दर असल
क्यूँ रहे बेवजह उसकी आस में ....बेहतर है ....प्यास में ...!

क्या तुम वही हो ..?

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तेरे काम जो आये जिंदगी भर
वो एक आईना पेश करता हूँ
चंद लम्हें नहीं पल अनगिनत
जो बिताये हमने तेरे साथ
एक गहरी - बहुत ही गहरी
मुआयना पेश करता हूँ।

देखना रोजाना शक्ल अपनी
कागज़ के इस आईने में ...
पूछना खुद से बार-बार
क्या तुम वही हो ..?

सिजदे की सी थी वजूद तुम्हारी
खोजना इन हर्फों में छिपी
रत्ती भर भी तुम कहीं हो ..?


खुद को तसल्ली दे लो
झूठ कह लो खुद से, मगर
जैसे दिल पे रखते हैं,
इस कागज़ पर भी
रखकर अपने हाथ कहना
क्या तुम, तुम रही हो ;..?

क्या हो गए हो

क्या थे तुम, क्या हो गए हो
नयी एक "तुम" बनाकर
तुम ना जाने कहाँ,
ग़ुम हो गए हो

क्या देखूं, क्या बयाँ करूं
आखिर तेरी "तुम" से
वो जो एक तुम थी
उसे मेरी वफ़ा भाती नहीं
और जो नई तुम हो
उसे हया आती नहीं

तुम तो खुदा थे मेरी नजर
हम तो हैं ही जुदा ज़माने में
और एक तुम ही जहां में
औरों से जुदा थे मेरी नजर

मेरा कल, मेरा आज थे तुम
मेरी खुशियाँ, मेरी नाज थे तुम
न जाने मेरे जन्नती तुम को लेकर
तुम कहाँ को दफा हो गए हो

सच है, मगर आँखों से देखकर भी
यकीं होता नहीं कि तुम
"मेरी तुम" बेवफा हो गए हो।

वो पल.....

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याद आते हैं हमें अब भी
वो कुछ हसीन पल
जज्बातों से भरे कोमल
मार देता ठोकरें
कोमल उन पलों को भी
गर होती खबर,
उन पलों को आना दुबारा न था

अब जा रहे हैं दूर उनसे
पहले थे मायूस मगर अब,
नाराज हम
नसीहत है न आवाज दें हमें
ना करीं झूठी वकालत खुद की
कि उनके हाथों में आया
वक्त का सितारा न था

हमें तो शक है उस फरेबी पर
कहीं वो बेहिचक .....
ये न कह दें,
वो इंतिजार कर रहे थे, मगर
हमने उन्हें पुकारा न था ..!

क्या बला मुहब्बत ..?

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बेबस दिल डूब रहा है अब
देख ली, क्या बला मुहब्बत ..?
खुदा के हसीं तोहफों से
मन ऊब रहा है अब

खुद कसम, जो गंवारा न था
कर गुजरे उनकी खातिर
जो वक्त बीत रही अब हमपर
कभी इस कदर गुजारा न था

हर कदम, हर सफ़र रहे उनके साथ
उमस भरे दिन हो अनिल
या सर्द कंटीली रात
उन्हें, उन्हीं सा क़ुबूल किया
चाही उनकी हर बात

सच है, जग में सिर्फ
वो ही हुए काबिज हमपर

वरना यह सख्श बेचारा न था ..

एक महान रचनाकार को श्रद्धांजलि...

स्व0 हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" जी का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के नज़दीक प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबु पट्टी में एक कायस्थ परिवार मे हुआ था।  बताने की आवश्यकता नहीं कि ये क्यूँ हमारे दिलो-दिमाग में अभी तक जीवित हैं। स्व0 हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" जी हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि और लेखक थे। स्व0 बच्चन हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है. बच्चन जी हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में अग्रणी हें।

सबसे पहले उर्दू की शिक्षा ग्रहण करने वाले स्व0 हरिवंश राय "बच्चन" जी ने  में अंग्रेजी में एम्0 ए0 किया और अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की। इनके लिखे कुछ कविताओं-गीतों का प्रयोग हिंदी फिल्मों में भी किया गया, जिन्हें काफी प्रशिद्धि मिली। इन्होने शेक्सपियर के लिखे कुछ नाटकों का हिंदी  भी किया। कुल मिलकर इनकी रचनाओं ने  पाठकों के ह्रदय में अमिट छाप छोड़ी हैं।

इनका पहला विवाह 1923 में श्यामा बच्चन से हुआ जो मात्र 13 वर्ष तक इनके साथ रहीं, दूसरी शादी इन्होने तेजी सूरी से 1941 में किया जो रंगमंच तथा गायन से जुडी हुई थीं जिनके दो पुत्रों में से एक  मशहूर बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन हैं। तेजी बच्चन बाद के वर्षों तक भी रंगमंच करती रहीं।

उनकी कृति  *दो चट्टानें* को 1968 में हिन्दी कविता का "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से सम्मनित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें "सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार" तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के "कमल पुरस्कार" से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी *आत्मकथा* के लिये उन्हें "सरस्वती सम्मान" दिया था।
हरिवंश राय बच्चन को भारत सरकार द्वारा सन 1976 में साहित्य-शिक्षा  के क्षेत्र में "पद्म भूषण" से सम्मानित किया गया था। इनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 को हो गई। ये तो चले गए हमें छोड़कर, मगर कृतियाँ उनकी सदा रहेंगी अमर, हमारे दिलों में। 

इनकी बहुत सारी रचनाओं में कुछ के नाम  दिए जा रहे हैं -


  • तेरा हार (1932)
  • मधुशाला (1935)
  • मधुबाला (1936)
  • मधुकलश (1937)
  • निशा निमंत्रण (1938)
  • बचपन के साथ क्षण भर (1934)
  • खय्याम की मधुशाला (1938)
  • सोपान (1953)
  • मैकबेथ (1957)
  • जनगीता (1958)
  • क्या भूलूं क्या याद करूं (1969)
  • नीड़ का निर्माण फिर(1970)
  • और  भी बहुत सारी रचनायें जिनके नाम यहाँ नहीं दिए जा सके हैं।



पूछ ले अपने दिल से....

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की थी मोहब्बत तो क्या खता की  ?
मेरी जिंदगी मुझको तो इतना बता भी...
एक बेकसूर दिल को क्यूँ राहत दी तुमने,
और फिर उसे ही क्यूकर सजा दी ?

इश्क वो आग है, दहकती ही जाये
जलने वाले खुद ब खुद जलें इश्क में
कोई कहाँ रोक पाए... 
मेरे दिल, दीवाने दिल को
धड़कना तो था ही
फिर जालिम प्रेम - अगन को
क्यूँ तूने हवा दी ?

भूलना ही था, फिर अपना बनाया क्यूँ ?
दिल को मेरे, दिल में  तेरे
क्यूँ मौका दिया घर बनाने का
मेरे ख्वाबों को अपने वादों से  सजाया क्यूँ ?
सोच ले ....बेवफा मुझको कहने से  पहले
पूछ ले ...अपने दिल से, क्या तूने वफ़ा की ...?



   

ओ प्यासे ...!



मैं जानता हूँ कल ओ प्यासे ...!
आँखें बंद करके ही
दुनिया दौड़ेगी तेरे पीछे
फुर्सत सांस लेने की भी
कहाँ तुझे तब

आश्चर्य मगर आज,
तुझे कौड़ी के भाव भी
खरीदने को कोई तैयार नहीं।

निः शब्द

उनके भाव सामिप्य 
ही के लिए बस 
क्या-क्या मैंने जतन किये...
सच्चे हैं, सत्य की चाह
मैंने आदतन किये...
बोल-पुकार थक चूका 
मैं तो अब निः शब्द हूँ !!

पतझड़ में सूखे पत्तों की तरह 
सुख चूका मैं जल-रहित...
दिशाहीन मैं भटक रहा 
संग सुखी धरा देख .. स्तब्ध हूँ 

आओ सभी ह्रदय तोड़ने वालों 
दिखा के दिवा स्वप्न 
त्वरित मुख मोड़ने वालों...
मैं निस्तेज, निष्प्राण 
प्रयोग करो मुझपर...

शल्य क्रिया करो 
मेरे ह्रदय के साथ,
दर्द होनी ही नहीं
मैं तुम्हारे लिए 
सर्वदा उपलब्ध हूँ.. देखो 
मैं तो अब निः शब्द हूँ

मैं ही मैं हूँ...

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मनमौजी हूँ मैं, 
लकीरें खींचने की कोशिश 
रही है पानी में भी 
कभी दीखता हूँ मासूम बच्चे सा 
कभी बूढ़ा, भरी जवानी में भी 

चौंकता हूँ 
मैं क्या हूँ, खुद से जो 
कभी पूछता हूँ 
हंस देता हूँ कभी किसी माहौल में 
कभी किसी के गम में भी
रोता हूँ 

देखता हूँ जो सड़कों पर 
मजबूर सारे.. 
मुझ सा ही दिखाई देते हैं सभी 
जब सब की भीड़ में खुद को 
खोजता हूँ.. 

ये अनिल.. वो अनिल.. 
कभी राजा..
कभी भिखारी की आत्मा में शामिल
कभी मुसाफिर कभी मंजिल 
कभी मझधार तो कभी साहिल 

कैसे तकलीफ दूँ किसी को 
जब रोना मुझे ही है 
कैसे चुरा लूँ चैन 
किसी की हानि कर बैठूं 
जब कुछ न कुछ खोना मुझे ही है.. 

दीखता हैं मुझे तुम में भी अक्स मैं की
ऐसा नहीं की सिर्फ बोलता हूँ..



इश्क का असर

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मौसम-ए-इश्क का असर
कुछ तो हुआ हमपर
जो बर्बाद होकर भी
रास्तों में किसी को
हम ढूंढा किये अक्सर


खुद को बुलंद कर कहता हूँ
मिल जाये तो नजर फेर लूँगा
मुस्कराहट को
आने न दूंगा होंठों पर
शिकन कम न होगी माथे की


मगर नजर फेरने को भी
जरूरी है
कभी रास्तों पर भी
वो आये तो नजर

आखिरी ख़त.. ( अगली प्रस्तुति :- २०.०९.११)

आ बैठा जो दिल में तेरे
दिल से निकालना जरूर, मगर...
कर लेना थोड़ी खातिरदारी भी
तेरी जिंदगी में
कभी न लौटनेवाला
मेहमान समझकर

देखता हूँ अक्सर तुझे
बंद आँखों से भी,
न रोकना मुझे देखने से
आखिरी बार अपने खुदा को
देख पाने वाला
एक इंसान समझकर

भली बुरी यादों से रिश्ता
तोड़ लेना जो
मुझसे जुडी हो, गर
कोई खता हुई हो मुझसे
माफ़ करना, इश्क में पागल
एक नादान  समझकर

कह चूका हूँ अब तक
या कह रहा हूँ जो भी
बुरा मत मान लेना
भूल जाना सब,
मगर हाँ में सर हिलाना
एक अनजान समझकर

दिल की कहो आग
या अरमानों के शोले,
जानकर मुझपे हंस दे
या पलकें अपनी भिगोले, मर्जी तुम्हारी
सवालों के अब वक्त नहीं
खामोश ही रहना, करना क़ुबूल
मेरा आख़िरी सलाम समझकर

हम कोशिश भर.. कर सकेंगे
जीने की तेरे बगैर
बचने की करेंगे तैयारी
तेरी जहरीली यादों से
खुद के लिए मौत का
फरमान समझकर

दुआ के सिवा
न तुम दो हमें कुछ
न हम दिया करेंगे,
हमसे जुडी यादों को भी फेंक देना
मैं दर्द को करूंगा कैद
दिल के तहखानेमें
तेरी बची आख़िरी निशाँ समझकर


तुम क्या रहोगे
दिल में मेरे, किसी नए
दिल में घर बनाओ
इस टूटे हुए दिल को
छोड़ देना, एक टुटा हुआ
मकान समझकर

एक पल के लिए भी जो
अपना माना हो गर तुने
यादें न बनाना, भूल जाना तुम
मुझे कोई खोया हुआ
सामान  समझकर

अगर दिल दुखा रहा हूँ
तेरा आज भी, माफ़ करना
जिद्दी जख्म है
आग से जला रहा हूँ
चलो इक दुसरे से
दूर हो लेते हैं, एक दुसरे को
बेईमान समझकर

मेरी शायरी तू है
अधूरी एक गजल भी है
लिख रहा हूँ तुझे
लिखता ही रहूँ, शायद
तुझे सुना न पाऊं 
कागज कम हो मगर
लिखने की वजह कम ना होगी
तुम मेरी ये तहरीर रख ही लेना
अपने पास मेरा आखिरी
कलाम समझकर..........!
प्रिय पाठकों से...
पुरे १०० नंबर देना..कंजूसी नहीं..
किसी बडबोले शायर की,
झोंकी हुई मेहनत तमाम समझकर...



एक युवा कवि की प्रस्तुति (अगली प्रस्तुति-10.09.11)




पत्रिका वागर्थ में छपी युवा कवि संजय राय की कुछ रचनायें पेश हैं...

1. चिड़िया बोली

उसने जब भी
कोई सपना देखा
एक चिड़िया बोली

उसका जब भी
कोई सपना टूटा
एक चिड़िया बोली

अब वह
सपना नहीं देखती
लेकिन वह चिड़िया
रोज उसी तरह बोलती है..
2. एक टुकड़ा शहर

वह जब भी
जाती है बाजार
एक टुकड़ा शहर ले आती है
अपने पर्स में

मेरे भीतर टूटता है
एक गाँव
हर बार

3. टहनियां

प्रेम
आसमान का विस्तार है मैं
आसमान से
टहनियां तोड़ता हूँ

4. घर

एक पाँव
बढ़ाते ही
वह बहार हो जाती है-
घर से
और
एक कदम पीछे हटने
पर कैद हो जाती है
उस छोटे से कमरे में

उसके घर में
आँगन नहीं है..

यूँ ही... क्यूँ ? (अगली प्रस्तुति:-03/09/11)

यूँ ही नहीं किया था
तुने वह गुनाह
जो नितांत अकेले में
मुझे प्यार का एहसास दिया था
एक नया जीवन जीने की
भूख दी थी प्यास दिया था

यूँ पकड़ लेना हाथ सड़कों पर शरेआम 
सोचो... मैंने कुछ तो सोचा होगा
अब तर्कों को दूर ही रक्खो
बस इतना समझाओ
मेरा हाथ पकड़ने से पहले
सोचा क्यूँ नहीं
कि मैं क्या सोचूंगा..

तुम इनकार करो आज हकीकत से
स्वार्थ से सराबोर होकर
मानो न मानो मगर..
हम मानते हैं
तुम्हे भी चाहत थी हमारी
जीवन के सफ़र में साथ निभाने को
तुम्हें भी जरूरत थी हमारी
हम जानते हैं..

प्रश्न सिर्फ यही है क्यूँ
एक बेफिक्र बेगाने को
अपने दिल का मेहमान बना दिया
जीने का मकसद दिया, मतलब समझाया
और आज
जब जीने की तड़प लिए
तेरे पास आया हूँ
बेहरूमती तेरी, तेरी खताएं भी
और बेईमान मुझे ही बता दिया.. क्यूँ ?