कब रोका उन्हें ....!

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कब रोका उन्हें औरों के घर जाने से
कब कहा मुझे अपना बना ही लो
रोका कब उन्हें औरों के
दिल - जेहन में उतर जाने से
मगर ये शौक भी क्या
कि जगहंसाई की जाय
वफ़ा-वफ़ा के दम भरे और बेवफाई की जाय

तलब नहीं, दरकार नहीं अब उन्हें वफ़ा की
सच है दर असल, वो मुझ परायों से
वफ़ा करेंगे क्या
जिन्होंने अपनों से दगा की

अरसों से हम तड़प रहे हैं
जिस एक ख़ुशी की तलाश में
वो ख़ुशी नहीं अब शुकून देने वाली
हलक ने इनकार किया है ये
जूठा पानी नहीं अब क़ुबूल लेने वाली
अब है बेहतर कि मर जाएँ हम
तड़प-तड़प यूं ही दो बूँद की प्यास में
जो ख़ुशी अब ख़ुशी सी ना लगे लगे दर असल
क्यूँ रहे बेवजह उसकी आस में ....बेहतर है ....प्यास में ...!

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