ये ग़ज़ल पंकज उधास जी के मशहूर गजलों में से एक है। जैसा गाने
से स्पष्ट कि – एक नसीहत है यह ग़ज़ल। ये तो बात हुई ग़ज़ल की, गाने वाले
ने और ग़ज़ल लिखने वालों ने भी यह न सोचा होगा कि उनकी लिखी बहुत जल्दी
पुरानी हो जाएगी।
जबकि कुछ वर्षों बाद ही आलम ये है कि पूरे नकाब में भी महिलाएं अब
सुरक्षित महसूस नहीं कर रहीं। क्या सड़क, क्या हॉस्टल, क्या किराये का
कमरा, क्या डिस्को बार, क्या सार्वजनिक पार्क, क्या बस, क्या चलती कार,
क्या चलती ट्रेन, क्या खुले मैदान, क्या फसलों से भरे खेत, क्या स्कूल,
क्या कॉलेज, क्या पवित्र स्थल, क्या गुरु आश्रम, क्या सेवा आश्रम, क्या
अन्य सार्वजनिक स्थल, और भी न जाने कितने जाने-अनजाने स्थल और अब तो घर भी
– कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हैं महिलाएं ।
कभी बोझ मानी जाती थीं लडकियां समाज पर दहेज़ और वंश के खोखले सवाल को
लेकर। अब जागरूकता बहुत हद तक आई दिखती है तो उनकी सुरक्षा को लेकर संशय
बढ़ी है । और सिर्फ महिलाओं की क्या कहें अब तो लगता नहीं कि कोई भी कहीं
भी सुरक्षित है।
दिन हो या रात हो, सुनसान हो या भीड़ हो। आम आदमी कहीं भी, कभी भी लूटा
जा सकता है। फिर वही बात-आम की क्या कहें, खासों को भी लूटते देर नहीं
लगती। आज देश में अन्य समस्याओं के अलावा सुरक्षा बहुत बड़ी समस्या है। और
जब सुरक्षा की बात आती है तो बच्चे और महिला इसे पाने की प्राथमिकता रखते
हैं। सुरक्षा से हमारा तात्पर्य सभी तरह की सुरक्षाओं से है।
विडम्बना है कि दुष्कर्मियों को सजा भी शत-प्रतिशत नसीब नहीं होता।
इसिलए भी ग्राफ दुष्कर्म का कम होने के आसार नजर आते नहीं । कुछ गुनाहगारों
को सजा मिल भी गई तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता दुष्कर्मियों के मनोबल पर।
जबकि चुन-चुन कर हर एक दुष्कर्मियों को सजा मिलनी चाहिए।
हजारों कानून लागू कर देने भर से ही किसी तरह के अपराध पर लगाम लगाना मुश्किल है । सिर्फ एक कानून कि
दोषी साबित होने पर जरूर से जरूर सजा हो – इस बात के लिए प्रशासन प्रतिबद्ध हो, ये
एक कानून बने। अगर दोषी सजा नहीं पायें और निर्दोष सजा पा जाएँ तो इस
मामले में प्रशासन को दोषी माना जाये और नियमानुसार उचित कार्रवाई हो ।
सच पूछिये तो हमारा मानना है कि बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराध सिर्फ
समय के प्रकोप नहीं है, यह हमारे नैतिक पतन का क्रमिक ह्रास भी दर्शाता है
और इन जैसे अपराधों का आरोह भी । नैतिक पतन हुआ है हमारा। हमारा नैतिक बोध
मरणासन्न अवस्था में है। नैतिकता के पतन के कारणों पर मैं नहीं जाना
चाहता। बहुत सारे कारण हो सकते हैं अनैतिकता पनपने के पीछे ।
हमें ख्याल आता है अपने बचपन के दिन जब हमारे पाठ्य-पुस्तकों में नैतिक शिक्षा एक जरूरी शिक्षा हुआ करती थी।
किसी का मजाक नहीं उड़ना चाहिए,
झूठ नहीं बोलना चाहिए,
चोरी नहीं करनी चाहिए,
अपने दिल से पूछो पराये दिल का हाल,
ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ ना करें जो खुद को अच्छी ना लगती हो, ज
रूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए आदि-आदि।
शत-प्रतिशत कह सकता हूँ कि उन नैतिक शिक्षाओं के प्रभाव और अभिभावकों के
दिए गए नसीहत ही आज हमें कुछ भी गलत करने से रोकती है। जरूरत है कि एकदम
आज से ही हमारे पाठ्यपुस्तकों में नैतिक शिखा अनिवार्य विषय हों।
तीसरी-चौथी कक्षा से इंटरमीडिएट तक के छात्र-छात्रों के लिए नैतिक शिक्षा
का अध्ययन अनिवार्य हों। निश्चित रूपेण अगली पीढ़ी ज्ञानवान होने के अलावे
बुद्धिमान, चरित्रवान और नीतिवान बन सकेंगे।
अभी समय थमा नहीं, जिंदगी अभी ख़त्म हुई नहीं। अभी और जीना हैं हमें,
समाज को, राष्ट्र को मगर कैसे ? – यूँ ही आसपास में घटित हो रही कुकृत्यों
से जूझते हुए। नहीं कदापि नहीं – बदलना होगा हमें, बदलना होगा समाज को,
बदलनी होगा सोच को। एक जूट होकर नयी सशक्त व्यवस्था के प्रयास करने होंगे
…!